- August 31, 2023
रसोई गैस की कीमतों में कैसे लगा बैक गियर
Deepak Kumar
August 29, 2023
रसोई गैस की कीमतों को बढ़ाने में पिछले कई वर्षों से बिना ब्रेक की गाड़ी चला रही केन्द्र सरकार ने अब हर साधारण सिलेण्डर पर 200 रूपये और उज्जवला योजना के लाभार्थियों के गैस सिलेण्डर पर 400 रूपये कम करने की जो मेहरबानी की है वह स्पष्ट रूप से जाहिर करता है कि सर्वे रिपोर्टों में सत्तारूढ़ पार्टी के ग्राफ को बराबर नीचे गिरता दर्शाये जाने से सरकार डर गयी है। जनता में सरकार की लोकप्रियता घटने के पीछे जो कारक सामने आये हैं उनमें महंगाई और बेरोजगारी प्रमुख हैं इसलिये 2024 के चुनावी समर में उतरने के पहले सरकार को क्षति प्रबंधन के लिये रसोई गैस की कीमत घटाने का लालीपाॅप जनता को दिखाना पड़ा है। संकेत यह दिये जा रहे हैं कि डीजल पेट्रोल के भाव भी कम किये जा सकते हैं। ठीक है यह अच्छी पहल है लेकिन क्या घटान का यह रूख स्थायी है या अगले चुनाव में सफल होने के बाद अभी की कमतरी की भरपाई सहित सरकार इन चीजों की कीमतें फिर से गगनचुंबी बना देगी।
दरअसल नीति के मामले में सरकार की नजर में खोट है। इस खोट के कारण ही एक ओर सारी सम्पत्ति और संसाधन एक फीसदी अमीर लोगों के यहां सिमटते जा रहे हैं दूसरी ओर आम लोगों का आर्थिक स्वास्थ्य बद से बदतर होता जा रहा है। इस विसंगति से सरकार खुद भी खूब परिचित है क्योंकि इस स्थिति का खुलासा सरकार द्वारा तैयार कराये जाने वाले आंकड़ों से ही होता है।
अगर सरकार की सोच सही होती तो सबसे पहले वह विचार करती कि विकास की दिशा ऐसी निर्धारित की जाये जिससे आम लोगों का जीवन सुगम हो जिसका दूसरा अर्थ है कि समृद्धि का एक हिस्सा उसके भी हक में आये। अगर विकास का सारा लाभ एक प्रतिशत अमीर कम्पनियां और लोगों तक सीमित होकर रह जा रहा है तो ऐसे विकास के लिये करों का बोझ बढ़ाने की क्या जरूरत है। कराधान का माॅडल कुछ ऐसा है कि इसमें भी अमीर लोग बचे रहते हैं और जेब कटती है तो केवल आम आदमी की। यह सही है कि विकास के ऐसे माॅडल बदलने की चर्चा विपक्षी दल भी नहीं कर रहे हैं। नीतियों के मामले में हर दल हमाम में नंगा नजर आता है यानी एक जैसा है। जनता को खुद ही नीतियों को पटरी पर लाने के लिये मैदान में उतरना पड़ेगा।
जहां तक दुनिया की बात है चीन में पिछले वर्ष आर्थिक विषमता की खाई बढ़ने पर सरकार की ओर से एलान किया गया कि जो कम्पनियां जरूरत से ज्यादा अमीर हो चुकीं हैं उन्हें अपना अतिशय धन समाज के लिये लौटाना पड़ेगा। चीन सरकार के इस निर्णय के चलते अली बाबा जैसी कम्पनी अर्श से फर्श पर आ गयी। दुनिया के और भी देश हैं जो आंखें मूंद कर निरीह जनता से कर वसूली बढ़ाते रहने की बजाय अमीरों पर वैल्थ टैक्स लगाने जैसी युक्तियों को अपनायें हुये हैं। भारत सरकार को भी अमीरों से वैभव कर की वसूली शुरू करके आम लोगों को परेशान किये बिना विकास के लिये पर्याप्त संसाधन जुटाने का मशविरा दिया गया था लेकिन सरकार को कुछ लोगों की अमीरी बढ़ाते रहने में ही अपना हित साधते नजर आ रहा है जिसके कारण ऐसे किसी मशविरे पर विचार करने की जहमत वह नहीं उठाना चाहती। सरकार वाक कौशल से अपने को खूब बचाती रहे लेकिन सारे तथ्य देखने के बाद बच्चा भी समझ सकता है कि अडानी का कुछ ही वर्षों में दुनिया के सबसे बड़े धनाढयों में खड़े हो जाने का चमत्कार सरकार की मदद से हो पाया है। सरकार ने सार्वजनिक क्षेत्र की तमाम सुद्रढ़ कम्पनियों को औने पौने में अडानी के हवाले किया। यह अभियान लगातार जारी है। वह बिना प्रतिस्पर्धा कराये हवाई अड्डे से लेकर रेलवे स्टेशन तक अडानी को सौंपती जा रही है। खुद सरकार का प्रतिस्पर्धा आयोग अडानी के इकतरफा सहयोग पर आपत्ति कर चुका है फिर भी सरकार मानने को तैयार नहीं है। पंजाब के बिजली घरों में रांची का कोयला भिजवाने के मामले में सरकार ने जो इंतजाम कर रखा है वह किसी कंपनी की बेजा मदद का दुस्साहसिक उदाहरण है। झारखण्ड से कोयला पहले श्रीलंका जाता है जहां से अडानी के पोर्ट पर से पंजाब आ पाता है। कोयले को यह परिक्रमा सिर्फ इसलिये करायी जाती है कि अडानी अपने पोर्ट का किराया इस प्रक्रिया में नाहक ही प्राप्त करता रहे।
सरकार को यह पक्षपात इसलिये सुहा रहा है क्योंकि एक ही कंपनी से उसे अपने राजनैतिक कार्य व्यापार के लिये इतना धन मिलता रहता है कि ज्यादा लोगों के हाथ जोड़ने की जरूरत ही नहीं पड़े। वर्तमान सत्तारूढ़ पार्टी का राजनीतिक खर्चा इसलिये बहुत ज्यादा है कि इससे अंधाधुंध प्रचार अभियान चलाये रखकर वह जनता को चकाचैंध रखती है जिसमें उसके विवेक को लकवा मार जाता है और वितंडा से वशीभूत रहकर वह एक ही दल को चुनने के लिये प्रेरित रहती है। फिर भी कहीं विपक्ष की सरकार बन जाये तो विधायकों की खरीद फरोख्त के लिये उसके पास मजबूत थैली हो। सरकार से यह पूंछा जाना चाहिए कि क्या अच्छे काम से लोगों के वोट नहीं जुटते जो कि ऐसे शाॅर्टकट उसे अपनाने पड़ते हैं। निश्चित रूप से इसका जबाव न में होगा। लोगों की वास्तविक रूप से भलाई करके भी सरकार लोकप्रियता बटोर सकती है इसके पर्याप्त उदाहरण हैं लेकिन अपने को पार्टी विद ए डिफरेंस मानने वाली भाजपा आज अपने सिद्धांतों से भटक चुकी है। पर बाजीगरी से काम चलाते चलाते अब जबकि सरकार साढ़े 9 वर्ष का समय गुजार चुकी है तो उसकी पोल पट्टी लोगों के सामने आ चुकी है इसीलिये लोग सर्वे रिपोर्टाे में सरकार से मोह का खूंटा उखाड़ते दिख रहे हैं।
नीतिगत तौर पर सरकार में यह निश्चय होना चाहिये कि आम जरूरतों की चीजें और सेवाएं तब तक सस्ती बनाये रखे जब तक कि देश में प्रति व्यक्ति आय अमीर देशों के स्तर पर कायम न कर दिया जाये। इसलिये रसोई गैस का सिलेण्डर चुनाव को देखते हुये सस्ता करने जैसे हथकंडों से काम नहीं चल सकता। उसे एक ऐसा माॅडल देश के सामने प्रस्तुत करने के लिये दिमागी कसरत करनी ही होगी जिसमें आवश्यक वस्तुओं और सेवाओं की दरें अंधाधुंध बढ़ने का कोई खतरा न हो।
दरअसल नीति के मामले में सरकार की नजर में खोट है। इस खोट के कारण ही एक ओर सारी सम्पत्ति और संसाधन एक फीसदी अमीर लोगों के यहां सिमटते जा रहे हैं दूसरी ओर आम लोगों का आर्थिक स्वास्थ्य बद से बदतर होता जा रहा है। इस विसंगति से सरकार खुद भी खूब परिचित है क्योंकि इस स्थिति का खुलासा सरकार द्वारा तैयार कराये जाने वाले आंकड़ों से ही होता है।
अगर सरकार की सोच सही होती तो सबसे पहले वह विचार करती कि विकास की दिशा ऐसी निर्धारित की जाये जिससे आम लोगों का जीवन सुगम हो जिसका दूसरा अर्थ है कि समृद्धि का एक हिस्सा उसके भी हक में आये। अगर विकास का सारा लाभ एक प्रतिशत अमीर कम्पनियां और लोगों तक सीमित होकर रह जा रहा है तो ऐसे विकास के लिये करों का बोझ बढ़ाने की क्या जरूरत है। कराधान का माॅडल कुछ ऐसा है कि इसमें भी अमीर लोग बचे रहते हैं और जेब कटती है तो केवल आम आदमी की। यह सही है कि विकास के ऐसे माॅडल बदलने की चर्चा विपक्षी दल भी नहीं कर रहे हैं। नीतियों के मामले में हर दल हमाम में नंगा नजर आता है यानी एक जैसा है। जनता को खुद ही नीतियों को पटरी पर लाने के लिये मैदान में उतरना पड़ेगा।
जहां तक दुनिया की बात है चीन में पिछले वर्ष आर्थिक विषमता की खाई बढ़ने पर सरकार की ओर से एलान किया गया कि जो कम्पनियां जरूरत से ज्यादा अमीर हो चुकीं हैं उन्हें अपना अतिशय धन समाज के लिये लौटाना पड़ेगा। चीन सरकार के इस निर्णय के चलते अली बाबा जैसी कम्पनी अर्श से फर्श पर आ गयी। दुनिया के और भी देश हैं जो आंखें मूंद कर निरीह जनता से कर वसूली बढ़ाते रहने की बजाय अमीरों पर वैल्थ टैक्स लगाने जैसी युक्तियों को अपनायें हुये हैं। भारत सरकार को भी अमीरों से वैभव कर की वसूली शुरू करके आम लोगों को परेशान किये बिना विकास के लिये पर्याप्त संसाधन जुटाने का मशविरा दिया गया था लेकिन सरकार को कुछ लोगों की अमीरी बढ़ाते रहने में ही अपना हित साधते नजर आ रहा है जिसके कारण ऐसे किसी मशविरे पर विचार करने की जहमत वह नहीं उठाना चाहती। सरकार वाक कौशल से अपने को खूब बचाती रहे लेकिन सारे तथ्य देखने के बाद बच्चा भी समझ सकता है कि अडानी का कुछ ही वर्षों में दुनिया के सबसे बड़े धनाढयों में खड़े हो जाने का चमत्कार सरकार की मदद से हो पाया है। सरकार ने सार्वजनिक क्षेत्र की तमाम सुद्रढ़ कम्पनियों को औने पौने में अडानी के हवाले किया। यह अभियान लगातार जारी है। वह बिना प्रतिस्पर्धा कराये हवाई अड्डे से लेकर रेलवे स्टेशन तक अडानी को सौंपती जा रही है। खुद सरकार का प्रतिस्पर्धा आयोग अडानी के इकतरफा सहयोग पर आपत्ति कर चुका है फिर भी सरकार मानने को तैयार नहीं है। पंजाब के बिजली घरों में रांची का कोयला भिजवाने के मामले में सरकार ने जो इंतजाम कर रखा है वह किसी कंपनी की बेजा मदद का दुस्साहसिक उदाहरण है। झारखण्ड से कोयला पहले श्रीलंका जाता है जहां से अडानी के पोर्ट पर से पंजाब आ पाता है। कोयले को यह परिक्रमा सिर्फ इसलिये करायी जाती है कि अडानी अपने पोर्ट का किराया इस प्रक्रिया में नाहक ही प्राप्त करता रहे।
सरकार को यह पक्षपात इसलिये सुहा रहा है क्योंकि एक ही कंपनी से उसे अपने राजनैतिक कार्य व्यापार के लिये इतना धन मिलता रहता है कि ज्यादा लोगों के हाथ जोड़ने की जरूरत ही नहीं पड़े। वर्तमान सत्तारूढ़ पार्टी का राजनीतिक खर्चा इसलिये बहुत ज्यादा है कि इससे अंधाधुंध प्रचार अभियान चलाये रखकर वह जनता को चकाचैंध रखती है जिसमें उसके विवेक को लकवा मार जाता है और वितंडा से वशीभूत रहकर वह एक ही दल को चुनने के लिये प्रेरित रहती है। फिर भी कहीं विपक्ष की सरकार बन जाये तो विधायकों की खरीद फरोख्त के लिये उसके पास मजबूत थैली हो। सरकार से यह पूंछा जाना चाहिए कि क्या अच्छे काम से लोगों के वोट नहीं जुटते जो कि ऐसे शाॅर्टकट उसे अपनाने पड़ते हैं। निश्चित रूप से इसका जबाव न में होगा। लोगों की वास्तविक रूप से भलाई करके भी सरकार लोकप्रियता बटोर सकती है इसके पर्याप्त उदाहरण हैं लेकिन अपने को पार्टी विद ए डिफरेंस मानने वाली भाजपा आज अपने सिद्धांतों से भटक चुकी है। पर बाजीगरी से काम चलाते चलाते अब जबकि सरकार साढ़े 9 वर्ष का समय गुजार चुकी है तो उसकी पोल पट्टी लोगों के सामने आ चुकी है इसीलिये लोग सर्वे रिपोर्टाे में सरकार से मोह का खूंटा उखाड़ते दिख रहे हैं।
नीतिगत तौर पर सरकार में यह निश्चय होना चाहिये कि आम जरूरतों की चीजें और सेवाएं तब तक सस्ती बनाये रखे जब तक कि देश में प्रति व्यक्ति आय अमीर देशों के स्तर पर कायम न कर दिया जाये। इसलिये रसोई गैस का सिलेण्डर चुनाव को देखते हुये सस्ता करने जैसे हथकंडों से काम नहीं चल सकता। उसे एक ऐसा माॅडल देश के सामने प्रस्तुत करने के लिये दिमागी कसरत करनी ही होगी जिसमें आवश्यक वस्तुओं और सेवाओं की दरें अंधाधुंध बढ़ने का कोई खतरा न हो।